भारतीय पुरालेखों की ऐतिहासिक परंपरा |Historical Tradition of Indian Archives - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

भारतीय पुरालेखों की ऐतिहासिक परंपरा |Historical Tradition of Indian Archives

भारतीय पुरालेखों की ऐतिहासिक परंपरा

भारतीय पुरालेखों की ऐतिहासिक परंपरा |Historical Tradition of Indian Archives



भारतीय पुरालेखों की ऐतिहासिक परंपरा

ईशान अवस्थी

            

अभिलेख या शिलालेख के अध्ययन को ‘पुरालेखशास्त्र’ कहते हैं। अभिलेख मुहरोंस्तूपोंचट्टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं ये मन्दिर की दीवारों और ईंटों या मूर्तियों पर उत्कीर्ण होते थे। पुरातात्विक स्रोतों के अंतर्गत सबसे महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्राफी) कहा जाता है। भारतीय अभिलेख विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति 1830 के दशक में हुयीजब ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है। प्रिंसेप को पता चला कि अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर ‘पियदस्सी’ नामक किसी राजा का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम ‘अशोक’ भी लिखा मिला। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक सर्वाधिक प्रसिद्ध शासकों में से एक थे। इस शोध से आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नयी दिशा मिली। भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया। परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का एक सामान्य चित्र तैयार हो गया। 1877 ई. में कनिंघम ने ‘कापर्स इन्सक्रिप्शन इंडिकेरम’ नामक ग्रंथ प्रकाशित किया। इसमें मौर्यमौर्याेत्तर और गुप्तकाल के अभिलेखों का संग्रह है। हिन्दी में अभिलेखों का एक संस्करण डॉ. राजबली पाण्डेय ने प्रकाशित किया है।

            अभी तक विभिन्न कालों और राजाओं के हजारों अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। यद्यपि भारत का सबसे प्राचीनतम अभिलेख हडप्पाकालीन हैंलेकिन अभी तक सैन्धव लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है। अतः भारत का प्राचीनतम् प्राप्त अभिलेख प्राग्मौर्ययुगीन पिपरहवा कलश लेख या पिपरहवा धातु-मंजूषा अभिलेख (सिद्धार्थनगर)बड़ली (अजमेर) से प्राप्त अभिलेख एवं बंगाल से प्राप्त महास्थान अभिलेख महत्वपूर्ण हैं। महास्थान शिलालेख एवं सोहगौरा ताम्रलेख प्राचीन भारत में अकाल से निपटने के लिए खाद्य आपूर्ति व्यवस्था (राशनिंग) पर प्रकाश डालता है। भगवान बुद्ध के अस्थि-अवशेष के सम्बन्ध में जानकारी देने वाला पिपरहवा कलश लेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में निर्गत यह अभिलेख सुकृति बंधुओं द्वारा स्थापित करवाया गया था।

            प्राचीन भारतीय इतिहास की परम्परा में अभिलेख और शिलालेखों की परम्परा अति प्राचीन रही हैइसके अंकुरण और उषाकाल को बताना असंभव है। सम्राट अशोक ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में अपने धर्मअपनी प्रशासनिक नीतियोंप्रशासनिक कर्मचारियों आदि को निर्देशित करने की व्याख्या करते हुए बड़े वैज्ञानिक ढ़ग से अपने अभिलेखों का स्थापित करवाया। अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- शिलालेखस्तंभलेख और गुहालेख। शिलालेखों और स्तंभलेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। चौदह शिलालेख सिलसिलेवार हैंजिनको ‘चतुर्दश शिलालेख’ कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाजगढ़ीमानसेहराकालसीगिरनारसोपाराधौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असम्बद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं। शायद इसीलिए उन्हें ‘लघु शिलालेख’ कहा जाता है। इस प्रकार के शिलालेख रूपनाथसासारामबैराटमास्कीसिद्धपुरजटिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं। लघुशिलालेख में अशोक संघ शरण की महत्ता पर प्रकाश डालता है। अशोक के स्तम्भ लेखों में धर्मधम्मघोष और लोकोपकारी कार्यों का वर्णन मिलता है। पंचम स्तम्भलेख (दिल्ली-टोपरा) में अहिंसा व्रत के अन्तर्गत सभी जीवों को अबध्य माना गया है। गिरनार के षष्ठम स्तम्भलेख में अशोक के प्रजा हित चिंतन के दायित्व के निर्वाह के विषय में लिखा गया है। इसमें कहा गया है कि ‘सब समयचाहे मैं भोजन कर रहा हूँअन्तःपुर में रहूँशयनकक्ष में रहूँपशुशाला या पालकी में रहूँउद्यान में रहूँसर्वत्र प्रतिवेदक स्थित रह कर जनता के कष्टों से मुझे प्रत्यावेदना करें’। एक अभिलेखजो हैदराबाद में मास्की नामक स्थान पर स्थित हैमें अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त गुजर्रा तथा पानगुड्इया (मध्य प्रदेश) से प्राप्त लेखों में भी अशोक का नाम मिलता है। अन्य अभिलेखों में उन्हें देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी’ राजा कहा गया है। अशोक के अधिकांश अभिलेख मुख्यतः ब्राह्यी में हैंजिससे भारत की हिंदीपंजाबीबंगालीगुजराती और मराठीतमिलतेलगुकन्नड़ आदि भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पाये गये अशोक के कुछ अभिलेख खरोष्ठी तथा आरमेइक लिपि में हैं। ‘खरोष्ठी लिपि’ फारसी की भाँति दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी।

            अशोक के बाद अभिलेखों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है- राजकीय अभिलेख और निजी अभिलेख। राजकीय अभिलेख या तो राजकवियों द्वारा लिखी गई प्रशस्तियाँ हैं या भूमि-अनुदान-पत्र। प्रशस्तियों का प्रसिद्ध उदाहरण हरिषेण द्वारा लिखित समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति अभिलेख (चौथी शताब्दी) है जो अशोक-स्तंभ पर उत्कीर्ण है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजयों और उसकी नीतियों का विस्तृत विवेचन मिलता है। इसी प्रकार राजा भोज की ग्वालियर प्रशस्ति में उसकी उपलब्धियों का वर्णन है। इसके अलावा कलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख (प्रथम शताब्दी ई.पू.) प्राकृत भाषा में लिखी प्राचीनतम प्रशस्ति है। शक क्षत्रप रुद्रदामन् प्रथम का जूनागढ़ अभिलेख (150 ई.) संस्कृत भाषा में लिखी प्राचीनतम प्रशस्ति है। गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेखस्कंदगुप्त का भितरी तथा जूनागढ़ लेखमालवा नरेश यशोधर्मन का मन्दसौर अभिलेखचालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख (634 ई.)बंगाल के शासक विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख भी महत्वपूर्ण हैं जिनसे प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वरूप खड़ा करने में विशेष सहायता मिलती है।

            ताम्रलेखों में सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम ताम्रलेख गोरखपुर जिले सोहगौरा से 1893 ई. में प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त हूण शासक तोरमाण का एक ताम्रलेख लेख संजेली (गुजरात) से मिला है। सम्राट हर्षवर्धन ने मधुबन और बांसखेड़ा से प्राप्त हुआ है। भूमि-अनुदान-पत्र अधिकतर ताँबे की चादरों पर उत्कीर्ण हैं। इन अनुदान-पत्रों में भूमिखंडों की सीमाओं के उल्लेख के साथ-साथ उस अवसर का भी वर्णन मिलता है जब वह भूमिखंड दान में दिया गया। इसमें शासकों की उपलब्धियों का भी वर्णन मिलता है। नानाघाट अभिलेख में ब्राह्मणों एवं बौद्धों को भूमिदान दिये जाने का सबसे पहला उल्लेख प्राप्त होता है। पूर्वमध्यकाल के भूमि अनुदान-पत्र बड़ी संख्या में मिले हैं जिससे लगता है कि इस काल (600-1200 ई.) में सामन्ती अर्थव्यवस्था विद्यमान थी।

            निजी अभिलेख प्रायः मंदिरों में या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं। इन पर खुदी हुई तिथियों से मंदिर निर्माण या मूर्ति प्रतिष्ठापन के समय का ज्ञान होता है। इसके अलावा यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुड़ स्तंभ लेखवाराह प्रतिमा पर एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त हूण राजा तोरमाण के लेख जैसे अभिलेख भी इतिहास-निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यवन राजदूत हेलियोडोरस का गरूड़ स्तम्भ लेख प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। यह भागवत धर्म से सम्बन्धित पहला अभिलेखीय प्रमाण है। इन अभिलेखों से मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास पर प्रकाश पड़ता है और तत्कालीन धार्मिक जीवन का ज्ञान होता है।  प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेख मुख्यतया पालिप्राकृत और संस्कृत में मिलते हैं। गुप्तकाल के पहले के अधिकतर अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं और उनमें ब्राह्मणेत्तर धार्मिक-संप्रदायों- जैन और बौद्ध धर्म का उल्लेख है। गुप्त एवं गुप्तोत्तरकाल में अधिकतर अभिलेख संस्कृत भाषा में हैं और उनमें विशेष रूप से ब्राह्मण धर्म का वर्णन है। प्राचीन भारतीय इतिहासभूगोल आदि की प्रामाणिक जानकारी के लिए अभिलेख अमूल्य निधि हैं।

            इन अभिलेखों के द्वारा तत्कालीन राजाओं की वंशावलियों और विजयों का ज्ञान होता है। अभिलेखों में प्रसंगतः सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था का भी उल्लेख मिलता है। अभिलेखों से विभिन्न कालों की धार्मिक स्थिति का विवरण भी मिलता है। अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके काल में बौद्ध धर्म का विशेष प्रचार था तथा वह स्वयं इसके सिद्धांतों से प्रभावित था। उदयगिरि के गुहालेखों में उड़ीसा में जैनमत के प्रचार का ज्ञान होता है। गुप्तकालीन अभिलेखों से पता चलता है कि गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म के अनुयायी थे तथा उस काल में भागवत धर्म की प्रधानता थी। यह भी पता चलता है कि विभिन्न स्थानों पर सूर्यशिवशक्तिगणेश आदि की पूजा होती थी। अभिलेखों के अध्ययन से धार्मिक सहिष्णुता और साम्प्रदायिक सद्भाव का भी परिचय मिलता है। अशोक ने अपने 12वें शिलालेख में आदेश दिया है कि सब मनुष्य एक दूसरे के धर्म को सुनें और सेवन करें। कभी-कभी अभिलेखों में व्यापारिक विज्ञापन भी मिलता है।