मध्यकालीन राजस्थान में भक्ति आदोलन |Bhakti Movement in Medieval Rajasthan - Daily Hindi Paper | Online GK in Hindi | Civil Services Notes in Hindi

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शनिवार, 17 जून 2023

मध्यकालीन राजस्थान में भक्ति आदोलन |Bhakti Movement in Medieval Rajasthan

मध्यकालीन राजस्थान में भक्ति आदोलन 
(Bhakti Movement in Medieval Rajasthan)
मध्यकालीन राजस्थान में भक्ति आदोलन |Bhakti Movement in Medieval Rajasthan


 

मध्यकालीन राजस्थान में भक्ति आदोलन प्रस्तावना 

प्राचीनकाल में ब्राह्मणवाद एवम् वैदिक कर्मकाण्ड से परे जैन एवं बौद्ध धनों के आविर्भाव के साथ धार्मिक क्षेत्र में प्रथम क्रांति का सूत्रपात हुआ और समाज के अनेक वर्ग इनकी ओर आकर्षित हो गए। मध्यकाल के पूर्वाद्ध तक धर्म एवं समाज के समक्ष एक बार पुनः नीच, हीन एवं कमजोर तरके के लिए धर्म अथवा मुक्ति के द्वार बंद हो गए। इसके आधारभूत कारणों में पुरोहितवाद के साथ, समाज के सामाजिक ठहराव की पीरस्थितिजन्य जटिल एवं संकुचित्त मनोवृत्तियाँ, सामान्यजन में यथार्थ धर्म शास्त्रीय ज्ञान का अभाव, याज्ञिक कर्मकाण्ड, आडम्बर, वाह्याचार मुक्ति की दुरूहता तथा प्रचण्ड सामाजिक विषमता की विद्यमानता थी । राजस्थान में उक्त दुर्घीतियों को दूर करने में यहाँ के लोक देवों और संतों ने विशिष्ट भूमिका निभाई। उन्होंने सभी विषमताओं से परे मुक्ति के सरल और सहज माध्यम के रूप में केवल भक्ति तल को जन-जन के समक्ष रखा ।

 

भक्ति का अर्थ एवं प्राचीनता 

भक्ति से आशय निष्काम भाव से युक्त भगवद् सेबा, प्रेम एवं शरणागति है । प्रागैतिहासिक काल में ही प्राकृतिक आपदाओं के नियंत्रक के रूप में किसी दिव्य शक्ति के प्रति पनपे भय एवं पूज्य भावने आदिम जातियों में भक्ति भाव को जन्म दिया। सिन्धु सभ्यता में मातृ शक्ति एवं शिव शक्ति को धूप, नेवैद्य का अर्पण तथा वहाँ देवदासियों, उपासिकाओं एवं नर्तकियों की मूर्तियाँ भक्ति की प्राचीनता को दर्शाती हैं। कालान्तर में भक्ति द्रविड सभ्यता के अन्तर्गत दक्षिण में प्रस्फुटित हो उत्तर भारत तक फैली और भक्ति द्रावडी उपजी की कहावत प्रसिद्ध हो गयी। हमारे प्राचीन धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य में भक्ति तत्व के उल्लेख प्राप्त होते हैं । वेद उपनिषद, महाकाव्य, गीता, जैन एवं बौद्ध साहित्य, पुराण एवं अन्य ग्रंथों में शरणागति, सेवा, प्रेम, भगवद् भजन आदि रूपों में भक्ति प्रधानता दृष्टिगत की जा सकती है जिनमें वैदिक, शुंग, सातवाहन गुज, वर्धन आदि कालों में भारतीय धार्मिक जीवन में व्यापत 'भक्ति' इंगित होती है. 

 

दक्षिण में पूर्व मध्य युग में नायनार एवं आलवार संतों ने भक्ति को जन आन्दोलन का रूप प्रदान कर दिया। इन संतों ने असंख्य भक्ति गीतों की रचना की और ईश्वर के प्रति प्रेम, शरणागति, सेवा के सिद्धान्त दिये द्रविड भक्त गीता और रामानुज के बीच की कडी थे । रामानुजाचार्य वैद्याव आचार्य थे जिन्होनें प्रपत्ति (शराणागति) को मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ उपादान घोषित किया और भक्ति के द्वार सभी के लिए खोल दिये। इनकी चौथी अथवा पाँचवी शिष्य परम्परा में स्वामी रामानन्द हुए जिनके साथ उत्तरी भारत में भक्ति का आन्दोलनकारी प्रवेश हुआ

 

पूर्व मध्ययुगीन धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति 

जहाँ राजनीतिक अस्थिरता सत्ता - षड्यन्त्र, घटती-बढ़ती राज्यिक सीमाओं ने मध्यकालीन युग को अंधकारमय युग की संज्ञा प्रदान कर दी वही शूद्र, अंत्यज, म्लेच्छ, की धर्म एवं समाज में पीततावस्था तथा अन्याय अनेक विषमताओं तथा कुरीतियों ने इस युग के अंधकार को और स्याह कर दिया । इस्लाम के झंझावात् ने मंदिरों, मूर्तियों, कला कृतियों, साहित्यिक कृतियों को नष्ट कर दिया तथा अथाह सम्पत्ति को लूट लिया । कट्टर इस्लाम प्रचारक हिन्दू धर्म, संस्कृति एवं साहित्य की धरोहरों को नष्ट कर रहे थे एवम् हिन्दू निम्न जातियाँ इस्लाम के बल एवं प्रलोभन की तरफ पलायन कर रही थी। यह स्थिति हिन्दू धर्म, संस्कृति एवं सामाजिक संगठन के लिए चुनौतीपूर्ण थी। यह समय था जब इस्लाम को अवरुद्ध करना तथा विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक संकुचित वृत्तियों का त्याग कर गह कमजोरियों को समूल मिटा देने की आवश्यकता उत्पन्न हो गयी थी। न तो राजनीतिक सत्ताधारी क्षत्रिय वर्ग में इस आमूलचूल परिवर्तन को समाज के रंगमंच पर लाने की वीरता थी और न ही धार्मिक सत्ता के तथा कथित अधिकृत वर्ग यथा ब्राह्मण, वज्रयानी, तंत्रवादी कालमुखी आदि के कोई मंत्र, हवन, बलि, प्रेत विद्या या शमशान उपासना में थी । व्यभिचार, भोगविलास, मदिरापान, गृह षड्यंत्र तथा बाल विवाह बहु-विवाह, सतीप्रथा बालहत्या की दुष्प्रवृतियों ने समाज की स्थिति को और बदतर कर दिया ।

 

इस लक्ष्य को सुपरिणाम दिये अस्त्र शस्त्र विहीन, रक्तायुक्त उपासना एवं आडम्बर से परे रहने बाते शांत, समभावी संतों ने इन संतो ने तत्युगीन सभी विकट परिस्थितियों के निवारण का एक ही युगांतकारी समाधान दर्शाया और वह था भक्ति । इस प्रकार हिन्दुत्व में एक सुधारवादी लहर उठी जिसने भक्ति आदोलन का रूप ले लिया । मध्यकालीन भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन भक्ति आदोलन है जिसके प्रवर्तक कई संत हुए। इस आदोलन के जन्मदाता रामानुज माने जाते हैं। जिन्होंने विशिष्टाद्वैत के सिद्धांत की स्थापना कर जीवात्मा की अलग सत्ता का प्रतिपादन कर प्रपत्ति के सिद्धांत का प्रसार किया इसी प्रकार निम्बार्क ने कृष्ण की प्रेमपूर्ण भक्ति तथा माधवाचार्य ने निष्काम भाव से विष्णु भक्ति को मुक्ति हेतु आवश्यक निर्दिष्ट किया। भक्ति को जनधर्म बनाने का श्रेय रामानन्द को जाता है जिन्होंने भक्ति को दक्षिण से उत्तरी भारत में पुनर्जीवित कर लोकप्रिय बना दिया । इन्होंने राम और सीता की प्रेमाभक्ति पर बल दिया। संस्कृत के स्थान पर हिन्दी भाषा का प्रयोग किया, जाति वर्ग, लिंग विभेद से रहित समानता पर आधारित नई सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात किया इसी प्रकार अन्य संतों में बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु नामदेव, रैदास, कबीर, गुरू नानक, सूर, तुलसी, ने भी भक्ति के सिद्धांतों का प्रसार किया तथा हिन्दू मुस्लिम धर्मो एवं संस्कृतियों के मध्य भ्रातृत्व भाव स्थापित किया। इन संतों का धर्म सरल और पवित्र था वे ऐकेश्वरवाद, निष्काम भावी भक्ति, गुरु की अनिवार्यता सत्संगति, हृदय की शुद्धता आदि में विश्वास करते थे तथा बहु देववाद, जात-पाँत, मूर्तिपूजा के विरुद्ध थे । (यद्यपि मूर्ति भी भक्ति का एक प्रमुख उपादान बन चुकी थी) ऐकेश्वरवाद, समानता तथा सांप्रदायिक सौहार्द्र एवं समचय को प्रोत्साहन प्रदान करने में सूफी संतों की भी भूमिका रही ।

 

भक्ति आन्दोलन के कारण 

उपर्युक्त विवेचन ऊँच-नीच का विभेद, जात-पाँत की भावना अस्पृश्यता आर्थिक विपन्नता, धार्मिक पलायनवाद, कर्मकाण्ड, आडम्बर, मुक्ति की दुरूहता तथा विधर्मियों द्वारा स्थापत्य, शिल्प एवं साहित्य की बपौतियों को नष्ट भ्रष्ट करना आदि संक्षिप्त रूप से भक्ति आन्दोलन के उत्तरदायी कारण निर्धारित किये जा सकते हैं।