राजस्थान में भक्ति आन्दोलन - लोक देवता
राजस्थान में भक्ति आन्दोलन - लोक देवता
राजस्थान में भक्ति आन्दोलन - लोक देवता जटिल धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति मध्यकालीन भारत में प्रायः सभी स्थानों पर मौजूद थी। राजपूताना भी उनमें एक था। मंदिर प्रवेश, जलापूर्ति, आवास से सम्बन्धित अनेक निषेधाज्ञाएँ अत्यंतजो पर थी । भरतपुर, मेवात, फतेहपुर, झुझुनू शेखावाटी की बहुसंख्यक जनसंख्या इस्लाम अंगीकार कर चुकी थी। गौ वध हो रहे थे। बाल हत्या तथा सही प्रथा का बोलबाला था । यहाँ भी इस्लाम की तूफानी लहर तथा निम्न जातियों के पलायनवादी दृष्टिकोण धर्म परिवर्तन के प्रवाह को रोकने अथवा समाज को नई दिशा में मोड़ने का बल राजन्य राजपूत वर्ग, ब्राह्मण वर्ग तथा वाममार्गी संप्रदाय आदि किसी में नहीं था। यह कार्य यहीं के लोकदेवों एवं संतों ने प्रभु नामस्मरण, शरणागति, भजन, कीर्तन, गुरुमहिमा आदि भक्ति उपादानों के द्वारा कर दिखाया । इन्होंने निम्न जातियों को गले लगाया और सभी को सामाजिक समानता का पाठ पढ़ाया । 11वीं सदी से 17 वीं सदी के मध्य राजस्थान में भक्ति आधारित धार्मिक जागीत स्वसंस्कृति प्रेम, पशु वनस्पति रक्षा तथा समाज के निम्न वर्गों में स्वाभिमान लाने वाले प्रातः स्मरणीय लोकदेव व संत विभूतियाँ प्रकट हुई। राजस्थान की मरुभूमि इन विभूतियों के अवतरण में सर्वाधिक सरसरत रही । भक्ति आन्दोलन के प्रमुख वाहक यहाँ के लोक देव रहे राजस्थान में जिनकी महत्ता एवं लोकप्रियता क्षेत्रीय स्तर पर संभवतः उत्तरी भारत के संतो से भी अधिक रही । इन्होंने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष के साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को भी प्रधानता दी और यथोचित्त हक के लिये संघर्ष को भी मान्यता प्रदान की। राजस्थान में भक्ति आन्दोलन का स्वाभाविक शिलान्यास गोगा जी के द्वारा हुआ ।
राजस्थान के लोकदेवता गोगाजी-
गोगाजी के पिता ददेरवा जिला चुरू के शासक थे। दशरथ शर्मा गोगाजी का जन्म महमूद गजनी के समकालीन मानते हैं। पेमाराम इनका जन्म 10वीं अथवा 11वीं सदी में अनुमानित करते हैं। गोगाजी का जीवन घरेलू झगड़ों एवं समस्याओं से भरा हुआ था। गायों के हरण एवं मौसेरे भाईयों के समर्थन में आई मुस्लिम फौजों के साथ संघर्ष करते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए । लोकगीतों के अनुसार उन्होंने गायों की रक्षार्थ प्राण आहूत किये। इनकी स्मृति में प्रतिवर्ष भाद्र पक्ष कृष्ण नदमी को गोगामेढी नामक स्थान पर गोगानवमी नाम से मेला लगता है। उनकी अश्वारोही योद्धा तथा सर्प दोनों रूपों में भक्ति की जाती है। ग्रामीण समुदायों में गोगाजी की भक्ति इतनी लोकप्रिय हैं कि उनके लिए "गाँव खेजडी, गाँव गाँव गोगो कहावत प्रसिद्ध है। अच्छी पैदावार के लिए और शुभ कार्यों के लिए इनकी मनौती माँगी जाती है। इनकी भक्ति से सर्प का विष उतर जाने की मान्यता प्रचलित हैं । इन्हें संकट हरण माना जाता है । स्वतः सहज उपलब्ध स्थानीय वस्तुओं से बिना किसी बाह्य आडम्बर के इनकी भक्ति की जाती है। गोगाजी के अनेक लोक भजन, गीत आदि प्रचलित हैं। इनके भक्त हिंदू और मुस्लिम दोनों हैं जो राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब में फैले हुए हैं। साक्षात प्रभाव, पर्चे, चमत्कार, दर्शन आभास आदि के कारण गोगाजी जाहर पीर भी पुकारे जाते हैं। इनकी भक्ति को हम जन जीवन के आर्थिक और सामाजिक आचारो की अभिन्नता के रूप में दृष्टिगत करते है ।
राजस्थान के लोकदेवता तेजाजी
तेजाजी का जन्म मारवाड के नागौर परगने के खडनाल गाँव में वि. सं. 1130 (1073 ई) में हुआ। ये जाट जाति के धौल्या गोत्र से थे । तेजाजी भी गोगाजी के समान एक स्वाभिमानी गौ रक्षक थे । लाछागुजरी को दिए वचन के पालनार्थ इन्होंने गायों को मुक्त कराने के प्रयास में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। अंतिम समय एक नाग द्वारा इन्हें दंशित कर कष्ट मुक्त करने की किंवदन्तियाँ भी प्रचलित हैं। इनकी पत्नी पेमल सती हुई सुरसुरा (किशनगढ़), परबतसर, खड़नाल, ब्यावर आदि तेजाजी के तीर्थ स्थल हैं। जहाँ प्रतिवर्ष तेजाजी के मेले लगते हैं। परबतसर में भाद्रपद शुक्ला 5 से 15 तक विशाल मेला लगता है। सभी धर्म, संप्रदाय के लोग यहाँ इकट्ठे होते हैं और पशुओं की खरीद फरोख्त आदि के रूप में आर्थिक गतिविधियाँ भी सम्पन्न की जाती हैं। पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा व अन्य दूरस्थ प्रदेशों के भक्त भी यहाँ एकत्रित होते हैं। अतः इनकी भक्ति ग्रामीण जन जीवन और उसकी धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक क्रियाकलापों के निकट हैं तथा उन्हीं से जुड़ी है न कि धर्म ग्रंथ, पंडित, पांडित्य, आडम्बर आदि से ।
राजस्थान के लोकदेवता पाबूजी
पाबूजी का जन्म वि. सं. 1296 (1239 ई.) में धाँधलजी राठौड़ के यहाँ कोलू गाँव में हुआ । पाबूजी साहसी, वचन के धनी, शरणागत वत्सल, अछूतोद्धारक एवम् चमत्कारी लोक नायक थे । इन्होंने म्लेच्छ समझी जाने वाली थोरी जनजाति तथा आदिवासी भील जनजाति को गले लगाया। थोरी जाति के सात भाईयों को उन्होंने अपने प्रमुख सरदारों में स्थान दिया। पाबूजी का खान-पान भी उनके साथ होता था । काछेला चारण से एक घोड़ी लेने पर पाबूजी ने उसे वक्त पर मदद करने का वचन दिया । जींदराव द्वारा काछेला चारण की गायें घेर लेने पर पाबूजी ने अपने वचन पालन के लिए जींदराव से युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हुए । उनकी पत्नी सोढी सती हुई ।
राजस्थान में राठौड़ व लोकजन् पाबूजी को इष्ट देव मानते हैं थोरी, मील और भोपा जाति लोग भी बड़ी संख्या में इनके भक्त हैं। ये लोग सारंगी के साथ "पाबू घणी री वाचना गाकर उनकी भक्ति करते हैं । मोपों द्वारा "पाबूजी की पड़" छन्दों में गाई जाती है। ग्रामीण जन समुदाय इन्हें ऊँटों के देव के रूप में भी भजते हैं जो पशुओं की बीमारी हर लेते हैं। यहाँ ग्रामीण लोक जीवन के विविध पहलुओं में भक्ति एक प्रधान अंग के रूप में समाहित है, उसी के निकट है, न कि किसी प्रकार के कर्म काण्ड, आडम्बर ब्राह्मण हस्तक्षेप तथा दुरूह शास्त्रीय ज्ञान के ।
राजस्थान के लोकदेवता रामदेवजी
रामदेवजी सर्वाधिक लोकप्रिय लोकदेव हैं। ये तंवर वंशीय राजपूत थे। इनकी जन्मतिथि के बारे में निश्चित्त सूचनाओं का अमाव है। मल्लीनाथजी ने इन्हें पोकरण का इलाका प्रदान किया । रामदेव जी ने भैरव राक्षस की शक्ति को जन कल्याणार्थ समाप्त किया। रामदेवरा नामक नया गाँव बसाया । धर्म, दर्शन एवं सामाजिक समानता के सिद्धांत जनता के समक्ष रखे नामस्मरण, गुरुमहिमा, सत्संगति, ईश्वरीय सार्वभौमिकता के भक्ति तत्वों का प्रसार किया। बाह्य आडमर, सामाजिक विभेदो का विरोध किया। सभी प्रकार के भेदभाव से रहित कामडिया पंथ की स्थापना की, जिसमें निम्नवर्गीय सदस्य भी दीक्षित हुए। अछूतों में धारू मेघवाल और डालीबाई के नाम उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अस्पृश्यों को समाज के आभूषण के समान माना- "हरिजन म्हारे हार हियै रो मोती, मूंग्या' कहावै ।" इन्होंने माया, मोह, क्रोध, अहंकार को हृदय में न पालने पर बल दिया तथा इन्हें ईश प्राप्ति की राह में बाधक बताया । 1458 ई. से भाद्रपद शुक्ल 11 को इन्होंने रामदेवरा में जीवित समाधि ले ली ।
रामदेवरा में प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में मेला लगता है। जिसमें लाखों भक्त एकत्रित होते हैं । इनके अनुयायियों में अधिकांशत ढेड, भाँबी आदि निम्न वर्ग अधिक हैं किन्तु उच्च वर्ग एवं मुसलमान भी बहुसंख्या में इनके भक्त हैं। पोकरण भी रामदेवजी का तीर्थ स्थल हैं। गाँवो में खेजडी के नीचे, खेतों में, चबूतरों पर इनके पगलिये, थान, देवल देवरे तथा उपर फहरी हुई जजा देखी जा सकती है | राजस्थान की मिट्टी में रामदेवजी की गंध है, हक में उनके लिए श्रद्धा, प्रशीत में उनके पर्चे और लोकजीवन में उनके आदर्श एवं इष्ट है। कृष्ण का अवतार मानकर भी इनकी सहज सरल भक्ति की जाती है धूप, दीप, नारियल, मजाने के अर्पण के साथ भजन, कीर्तन करते हुए इनकी भक्ति की जाती है । स्थानीय स्तर पर लोक जीवन में जातीय विषमता को दूर करने के सर्वाधिक प्रभाव का श्रेय संभवत: रामदेवजी को ही जाता है। समाज के समक्ष धर्म के सरल रूप को प्रस्तुत करने में रामदेवजी ने नाम स्मरण, गुरु महिमा, सत् संगीत, भगवत् भजन आदि भक्ति तत्वों को प्रधानता दी ।
राजस्थान के लोकदेवता मल्लीनाथ जी
मल्लीनाथजी का जन्म मारवाड के राव सलखाजी के यहाँ 1358 ई. में हुआ । 1374 ई. में मल्लीनाथजी महेश के सामी बन गए। 1378 ई. में फिरोज तुगलक द्वारा जालौर के सूबेदार निजामुद्दीन के अधीन भेजी गई 13 दलों वाली सेना को मल्लीनाथजी ने परास्त कर दिया। यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी इस घटना के बाद इनकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई । इस्लामी आक्रमण एवं आतंक से त्रस्त मानवता के आत्मबल को कुछ प्रोत्साहन मिला। इन्होंने अपने रिश्तेदारों को मण्डोर और नागौर जीतने में मदद की तथा सिवाना, खेड ओसियाँ की जागीरें भी प्रदान की ।
जहाँ एक तरफ मल्लीनाथजी की उक्त घटनाएँ उन्हें एक वीर योद्धा सिद्ध करती हैं वहीं उनकी सिद्धियाँ, योग साधना एवं हरि भक्ति उन्हें योगी एवं भक्त भी निर्दिष्ट करती है। अपनी पत्नी रूपांदे की प्ररणा से वे उगमसी भाटी के शिष्य बन गए और उन्हीं से दीक्षत्व ग्रहण किया। 1399 ई. में मारवाड़ के संतों को एकत्रित कर एक विशाल कीर्तन का आयोजन किया। जनमानस को नामस्मरण, सत्संगति, हीर गुणगान, योग साधना की तरफ प्रेरित किया। वे निर्गुण निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे ।
1399 ई. में इनका स्वर्गवास हो गया। तिलवाडा ग्राम (जिला बाडमेर) में इनका उपासना स्थल है यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक मेला भरता है जहाँ ग्रामीण जनजीवन की आर्थिक गतिविधियाँ भी सम्पन्न होती हैं। यह मेला पशु मेले के नाम से भी प्रसिद्ध है। जोधपुर के पश्चिमी परगने बाडमेर को इनके नाम पर मालानी पुकारा जाना जन् जन् में इनकी आस्था को व्यक्त करता है। मल्लीनाथजी की सिद्धियाँ, चमत्कार तत्व, हरि भक्ति ने इन्हें देव की संज्ञा से अभिहित किया एवं सदी दर सदी इनके प्रति भक्ति का प्रवाह आबद्ध रूप से चलता रहा । वेदोपीनषद् साहित्य में विहित भक्ति तत्वों को मध्यकाल में पुनर्जीवित करने एवम जन-जन में प्रसारित करने का श्रेय स्थानीय स्तर पर रामदेवजी, मल्लीनाथजी तथा रानी रूपांदे को दिया जा सकता है।
राजस्थान के लोकदेवता हरभूजी
धर्म एवं वीरता के नायक हरभूजी (भुंडेल) नागौर के महाराजा साँखला के पुत्र थे। इनका जन्म 1438 ई. में अनुमानित किया जाता है । हरभूजी रामदेवजी के गुरू भाई थे । हरभजमाल (फलौदी) में इन्होंने रामदेवजी की प्रेरणा से ही यौद्धिक जीवन का परित्याग कर गुरु बालीनाथ से दीक्षा ग्रहण कर ली । हरभूजी ने राव जोधाजी को एक लकडी की तलवार प्रदान कर मंडोर की पुनःप्राप्ति का आशीर्वाद दिया । सद जोधा का यह अभीष्ट कार्य पूर्ण हुआ और उन्होंने हरभूजी को बेंगटी गाँव प्रदान कर कृतज्ञता जाहिर की ।
हरभूजी जन कल्याणार्थ उपदेश देते, दीन दुःखियों, जरूरतमंदों की मदद करते, सदाव्रत बाँटते, सिद्धि साधना करते तथा निर्गुण निराकार को भजते ।
बेंगटी (फलौदी) हरभूजी का प्रमुख तीर्थ स्थल है जहाँ श्रद्धालु अभीष्ट प्राप्ति पर आते हैं एवं भक्ति भावना व्यक्त करते हैं। कालांतर में जोधपुर के राजा अजीतसिंह (1721 ई. में) द्वारा बेंगटी हरभूजी के मंदिर का निर्माण करवाया गया । अतः न केवल देहाती समुदायों वरन राजन्यवर्ग में भी इस धर्म नायक के लिए व्यापक श्रद्धा एवं भक्ति विद्यमान थी ।