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शनिवार, 17 जून 2023

राजस्थान के प्रमुख संत | Rajsthan Famous Saint in Hindi

राजस्थान के प्रमुख संत

राजस्थान के प्रमुख संत | Rajsthan Famous Saint in Hindi


 

राजस्थान के प्रमुख संत 

राजस्थान प्रदेश में संत महापुरुष हुए कुछ संतो का यहीं जन्म हुआ तो कुछ विभूतियों ने यहाँ भ्रमणपीठ स्थापना स्थल तथा शिष्य परम्परा के द्वारा अपने सिद्धांतों से इस क्षेत्र को व्यापक रूप से प्रभावित किया। इन संतों ने अपनी आध्यात्मिक चैतन्य अवस्था को नवरूपा भक्ति के साथ सरल रूप में जनमानस के समक्ष प्रस्तुत कर कुरीतियों से पीडित समाज को चिन्तन के नए आयाम प्रदान किये। इस सम्बन्ध में यहाँ कुछ संतों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है

 

1 धन्ना (15 वीं शती) 

धन्ना का जन्म धुवन गाँव (टॉक जिला) में 1415 ई. में जाट परिवार में हुआ । बाल्यपन् से ही ईश्वरोनमुखी धन्ना उत्तर भारत में मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रथम प्रणेता रामानन्द के शिष्य थे । वे कृषि कार्य एवं गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए ईश भक्ति में लीन रहते थे। इनके प्रति भक्तों की अपार श्रद्धा एवं विश्वास ने इनके जीवन में विभिन्न अलौकिक घटनाओं का आभास किया । धन्ना ने नामस्मरणसत्संगतिसाधु सेवागुरु भक्ति पर बल दिया।

 

2 पीपा (1 नुबी शती) 

पीपा का जन्म 1428 ई. में गागरोन (कोटा) के शासक खीची राजपूत के यहाँ हुआ । धन्ना की भाँति ये भी रामानन्द के शिष्य थे तथा उनका भक्ति दर्शन रामानन्द से ही प्रभावित था। गुरु के उपदेश पर इन्होंने गहस्थ धर्म पालन के साथ ही ईश भक्ति की । पीपाजी के अनुरोध पर उत्तरी भारत में भक्ति आदोलन के प्रथम प्रवर्तक रामानन्द जी गागरोन पधारे और वहाँ कुछ समय तक प्रवास किया। उसके बाद पीपाजी ने भी राज्य त्यागकर रामानन्द जी के साथ काशी को प्रस्थान किया । दीक्षाकाल के बाद इन्होंने दर्जी वृत्ति धारण की। भ्रमण के दौरान ये पुनः गागरोन लौटे और एक गुफा में निवास करने लगे। यहीं इनका देहांत हो गया।

 

भक्तों की अथाह आस्था इनके जीवन को विभिन्न अलौकिक घटनाओं से जोस्ती है। यथा इनकी भक्ति की भावविहलता में प्रभू दर्शनार्थ समुद्र में कूद कर सात दिन पश्तात्त बाहर निकलना हिसक पशु सिंह को पालतू बनाना आदि। समदडी (बाडमेर) में पीपाजी का मंदिर है। जहाँ चैत्र शुक्ल पुर्णिमा को भक्तजनों का मेला मरता है।

 

पीपा का ईश्वर निर्गुणनिराकार अगमअगोचर था। वे उसके प्रति पूर्ण शरणागत् थे । वे ईश्वर को गाय और स्वयं को बछड़ा उसे चाँद स्वयं को चकोरउसे स्वामी तथा स्वयं को उसका सेवक अभिहित करते हैं। उन्होंने केवल भगवद् भजन मात्र को जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया। उन्होंने गुरु की महत्तासत्संगनामस्मरणआदि के सिद्धांत दिए तथा जात पांतमूर्तिपूजातीर्थ यात्राबाहयाचारों का विरोध किया ।

 

3 जाँभोजी (1451 ई. 1526 ई) 

विश्नोई संप्रदाय के प्रवर्तक जांभोजी का जन्म 1451 ई. में पीपासर (नागौर) के पंशर वंश के राजपूत लोहटजी के यहाँ हुआ। ये बाल्यावस्था में गाएँ चराने को कार्य करते थे। वन के शातनीरवपरिवेश ने इस मननशील एवं अल्पभाषी चरित्र को आत्मिक चिंतन में लीन कर दिया। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे । समराथल (बीकानेर) में इन्होंने ज्ञानोपदेशसत्संगहरिकीर्तनविष्णुनाम जपजन कल्याण आदि में अपना समय व्यतीत किया। यही पर कलश स्थापित कर विश्नोई पंथ का प्रवर्तन किया। 1526 में इन्होंने नश्वर देह त्याग दी। तालवा ग्राम में इनकी समाधि है। यह स्थान समराथल के निकट ही है और मुकाम नाम से प्रसिद्ध है। इनके सिद्धांतों को विश्नाई संप्रदाय के 29 नियमों में परिलक्षित किया जा सकता है जिनमें उन्होंने आत्मिक एवं दैहिक पवित्रता दैनिकचर्या की शुद्धतासंतोषक्षमाशीलदयाप्रेम का धारण तथा तर्कनिंदाअसत्यचौरीकामक्रोधलोभमोह का त्यागपशु एवं वनस्पति संरक्षणअफीमतम्बाकू भांग मदय का त्याग आदि नियमों का निर्धारण किया।

 

जाँभोजी के मक्ति दर्शन में विष्णु नाम जपईश्वर में प्रबल आस्थागुरु महिमासत्संग आदि के तल समाहित हैं। उन्होंने भी तत्कालीन समाज में प्रचलित कुरीतियाँ यथा विभिन्न बाहमचारों लोक आडचरजातिगत भेदभाव का खुलकर विरोध किया । वामाचार व्यवहारपाखण्डबलिप्रथा का जबर्दस्त खण्डन इनके द्वारा किया गया । विभिन्न प्रचलित संप्रदायों की पाखण्डी प्रवृतियों पर उन्होंने जिस दबंगता से प्रहार किया वह उन्हें कबीर के समकक्ष रखता है।

 

4 जसनाथंजी (1482 ई. 1506 ई.) 

महाभक्त जसनाथजी का जन्म कतारिया 13 सर (बीकानेर) में 1482 ई. में हमीर जी जाट के यहाँ हुआ । बाल्यकाल से प्रोढ़ावस्था तक इन्होंने भक्ति मार्ग का अनुसरण किया तथा आजीवन ब्रह्मचारी रहे । गोरखमालिया में 12 वर्षा तक इन्होंने ईश साधना की। लूणकरण को बीकानेर-राज्य की प्राप्ति का वरदान दिया। दिल्ली का कट्टर विधर्मी सुल्तान सिकंदर लोदी भी इनसे प्रभावित था । उसने कतरियासर के निकट इन्हें भूमि प्रदान की। यहाँ ये लोक-कल्याणार्थ उपदेश देते थे। 24 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने कतरियासर में ही जीवित समाधि ले ली।

 

वे एक प्रबुद्ध धर्म एवं समाज सुधारक थे। उन्होंने ईश्वर में अपार श्रद्धानाम महिमाकर्मवाद में विश्वासगुरु की महत्तायोग साधना के भक्ति सिद्धांत कुरीतियों से जर्जर समाज के समक्ष रक्खेधार्मिक पाखण्डोंजात गीत आदि का विरोध किया और समाज के समक्ष नैतिक एवम् मूल्यपरक आचरण के आदर्श भी प्रस्तुत किये। जो जसनाथी सम्प्रदाय के 310.5.10.7.16 नियमों में मानव जीवन की चारित्रिक आचार संहिता के रूप में निर्धारित हैं

 

5 रैदास (1388 1518 ई. के लगभग मध्य ) 

साधुसेविदयावानउदार हृदयी रैदास का जन्म 1388 ई. में बनारस में अनुमानित किया जाता है। ये रामानन्द के शिष्य थे तथा कबीर की शिक्षाओं का इन पर प्रभाव था ।

 

राजस्थान रैदास का भ्रमण स्थल रहा। यहाँ इन्होंने अपने सिद्धातों का प्रसार किया। चित्तौड की झाली रानी तथा भक्तिमती मीरां उनकी शिष्याएँ थीं। चित्तौडगागरोन आदि में इनके यात्रा प्रवास के विवरण मिलते हैं । बीकानेर एवं जोधपुर क्षेत्रों में रैदास की शिक्षाओं का प्रभाव है। उक्त स्थलों पर रैदास के हस्तलिखित ग्रंथों का विशाल संकलन संग्रहीत है। रैदास ने ऐकेश्वरवादहरि स्मरणसाधु संगीतगुरु की महत्ता पर बल दिया। उन्होंने जात-पाँतऊँच-नीचबाह्य आडम्बर का विरोध किया

 

6 मीरां (1498-1546 ई.) 

मीरां भारतीय दीर्घ संत परम्परा की एक अजस्र एवं अन्यतम् महत्वपूर्ण कड़ी थी। मीरां का जन्म 1498 ई. में मेडता के रतन सिंह राठौड़ के यहाँ कुडकी ग्राम में झा । बाल्यवस्था से मीरां के हृदय में उपजा कृष्णभक्ति का पौधा जीवनपर उत्तरोत्तर विकीसत होता गया। मेवाड के कुँवर भोजराज से उनका विवाह हुआ। मीरां ने अपने जीवनकाल में माता भ्राता पतिपिता तथा दादा के देहान्त के कष्ट सहे । मृत्यु को जीवन की हकीकत सिद्ध करने वाली विविध घटनाओं ने मीरां को और अधिक ईश्वरोमुखी बना दिया। मीरां के देवर राणा विक्रमादित्य द्वारा खानदान के यश पर कलुषता लगाने भ्रम में भक्तिमती मीरां पर विभिन्न संकट बरपाए गए। यथा विष पानसर्पदंशशीशूल के प्रयास।

 

कहा जाता है कि मीरां ने रविदास से दीक्षत्व ग्रहण किया। रैदास के गुरुत्व के अधीन ही मीरां की भक्ति साधना चर्मोत्कर्ष पर पहुँची । भ्रमणशीलसाधुसंगीभक्त शिरोमणि मीरां द्वारिका में 1547 ई. को कृष्ण में तीन हो गई । मीरा सगुण साकार परमेश्वर की भक्त थीं। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पितशरणागत् प्रेमायुक्त भगवद् भजनसाधु संगीत उनकी भक्ति के प्रमुख अंग थे । जात पीतवर्ग भेद में उनका कोई विश्वास नहीं था दलित जाति के रैदास उनके गुरु थे। सांसारिक मोहमायाअहम् को वे मिथ्या मानती थीमीरां की भक्ति राजस्थान की सभी सीमाओं को लाँघकर देश एवं विदेश तक पहुँच गई। मीरां मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन के दृश्य पटल की एक शिरोमणि भक्त प्रतिष्ठित हो गई स्त्री की दशा के पराभव काल में मीरां के जीवन की विभिन्न गतिविधियाँ क्रांतिकारी संबोधित की जा सकती हैं। अखिल भारतीय भक्ति आदोलन में पश्चिमी राजस्थान की इस स्त्री संत की भूमिका अति महत्वपूर्ण है।

 

.7 दादू (1544 ई. - 1603 ई) 

दादू का जन्म अहमदाबाद में 1544 ई. हुआ। इनका पालन पोषण एक ब्राह्मण के हाथों हुआ । ग्यारह वर्ष की अवस्था में बुड्ढन (वृद्धानन्द) नामक संत से इन्होंने दीक्षत्व ग्रहण किया । इन्होंने नागौरसांभरआमेर में अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किया एवं सिद्धांतों का प्रसार किया मारवाड में भ्रमण करते हुए फुलेरा के निकट नरायणा में उन्होंने अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत किया । यही पर 1603 ई. में उन्होंने इस जगत से महाप्रयाण किया. 

 

दादू निर्गुण निराकार ईश्वर की सर्वशक्तिमता में विश्वास करते थे। उन्होंने हीरस्मरण सत्संगगुरुमीहमाभजनकीर्तन आदि भक्ति सिद्धांतों का प्रसार किया। रूढिगतपाखण्डी लोकाचारों पर अपनी बाणी से प्रहार किया । दानव्रततपतीर्थमूर्ति सभी के स्थान पर केवल राम नाम को ही सर्वोपरि माना सत्यअहिंसाप्रेमदयापरोपकार आदि गुणों को धारण करते हुए हृदय की शुद्धि पर बल दिया । परायणा में प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पंचमी से एकादशी तक दादूपीथयों व श्रद्धालुओं का विशाल मेला लगता है जहाँ मध्यकालीन विषमताओंजटिलताओं के अंधकार पर केवल भक्ति का प्रकाश छाया रहता है।

 

लोकदेवसंतआचार्य तथा भक्त कवियों की कड़ी के अंतर्गत प्रदेश में उक्त साधु चरित्रों के अतिरिक्त कई अन्य संत विभूतियों का अवतरण हुआ जिन्होंने स्थानीय तथा बाह्य स्तरों पर भी भक्ति सिद्धांतों का प्रसार किया। यथा हरिदास निरंजनीबखनाजीरज्जबजीनागरीदासपृथ्वीराज राठौडदरियावजीसुंदरदासईसरदास तलवेत्ताछीहललालदासचरणदास आदि ।

 

इन हिन्दू लोक देशे एवं सन्तों के अलावा राजस्थान में सूफी आन्दोलन के द्वारा भी लोगो भक्ति की अलख जगाई जिन में प्रमुख रूप से शेख मुइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर सेशेख मखदुम हुसैन शेख हमीदुद्दीन नागौरी ने नागौर से सूफी हमीदुद्दीन ने गागरोन सेहाजी नजमुद्दीन ने शेखावाटी मौलाना जियाउद्दीन ने जयपुर से एवं अन्य सूफी संतों ने ऐकेश्वरवादसमानता एवं प्रेम के सिद्धांतों का प्रसार कर सांप्रदायिक समानव्य के प्रचार में योगदान दिया ।