1857 क्रांति (विप्लव) का प्रारम्भ एवं प्रसार और भारत के विभिन्न स्थान
1857 विप्लव (क्रांति) का प्रारम्भ एवं प्रसार
- सर्वप्रथम क्रांति की शुरुआत कलकत्ता के पास बैरकपुर छावनी में हुई। यहां के सैनिकों ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से इंकार कर विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। 29 मार्च, 1857 ई. को एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पाण्डे ने चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग की आज्ञा से नाराज होकर अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर कुछ अंग्रेज सैनिक अधिकारियों को मार डाला । परिणामस्परूप मंगल पाण्डे तथा उसके सहयोगियों को फांसी की सजा दे दी गई। उसके बाद 19 तथा 34 नवंबर की देशी पलने समाप्त कर दी गई। बैरकपुर की छावनी की घटना के बाद मेरठ में भी विद्रोह शुरू हो गया | सैनिकों ने कारागह से बन्दी सैनिकों को मुक्त करा लिया तथा कई अंग्रेजों का वध कर दिया गया । मेरठ से यह क्रांतिकारी दिल्ली की ओर रहाना हुए ।
1857 क्रांति (विप्लव) और दिल्ली
- 11 मई 1857 ई. को मेरठ के विद्रोही सैनिक दिल्ली पहुंचे उस समय दिल्ली में कोई अंग्रेज पलटन यही थी । विद्रोहियों का दिल्ली के भारतीय सैनिकों ने स्वागत किया और वे भीड़ के साथ शामिल हो गये जन ही उन्होंने अपने सभी अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी। विद्रोहियों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुरशाह द्वितीय को नेतृत्व स्वीकार करने की अपील की। मुगल बादशाह ने संकोच किया तथा मेरठ के विद्रोह और विद्रोहियों के दिल्ली पहुंचने की सूचना आगरा में लेफ्टिनेंट गवर्नर को भिजवाई। लेकिन अंत मे विवश होकर उन्होंने क्रांतिकारियों का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया अंग्रेज दिल्ली से भाग गये और दिल्ली पर मुगल सम्राट बहादुरशाह की पताका फहराने लगी । मुगल शहजादों मिर्जा मुगल, मिर्जा खिजिर, सुल्तान और मिर्जा अबू बकर ने संयोग से प्राप्त इस अवसर से पूरा-पूरा लाभ उठाया । उन्हें लगा कि यह उनके वंश के पुराने गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करने का मौका है । मेरठ में विद्रोह और दिल्ली पर अधिकार की खबर पूरे देश में फैल गई और कुछ ही दिनों में उजर भारत के अधिकांश भागों में क्रांति का प्रसार हो गया।
1857 क्रांति (विप्लव) और अवध
- मेरठ की घटनाओं की सूचना 14 मई को और दिल्ली पर क्रांतिकारियों के अधिकार की खबर 15 मई को लखनऊ पहुंची। उस समय सर हेनरी लारेंस वहां का चीफ कमिश्नर था । उसने विद्रोह के संकट से बचने के लिए आवश्यक प्रयास किये लेकिन लखनऊ में भी विद्रोह को लम्बे समय तक टाला नहीं जा सका । 30 मई को लखनऊ से कुछ मील दूर मुरिआव छावनी में देशी सिपाहियों ने यूरोपीय फौज पर सशस्त्र हमला कर दिया। इसमें कुछ लोगों की जान गई । विद्रोह लखनऊ तक ही सीमित नहीं रहा। जल्द ही यह सीतापुर, फैजाबाद, बनारस, इलाहाबाद, आजमगढ़, मथुरा, मैनपुरी, अलीगढ़, बुलन्दशहर, आगरा, बरेली, फर्रुखाबाद, बिन्नौर, शाहजापुर, मुज्जफरनगर, बदायूँ, दानापुर आदि क्षेत्र में, जहां भारतीय सैनिक तैनात थे, वहाँ फैल गया। सेना के विद्रोह करने से पुलिस तथा स्थानीय प्रशासन भी तितर-बितर हो गया। जहां भी विद्रोह भड़का सरकारी खजाने को लूट लिया गया और गोले -बारूद पर कब्जा कर लिया गया। बैरकों थानो राजस्व कार्यालयों को जला दिया गया, कारागार के दरवाजे खोल दिये गये । गाद के किसानों तथा बेदखल किये गये जमींदारों ने साहूकारों एवं नये जमींदारों, जिन्होंने उन्हे बेदखल किया था हमला कर दिया। उन्होंने सरकारी दस्तावेजों तथा साहूकारों के बहीखातों को नष्ट कर दिया अथवा लूट लिया। इस प्रकार क्रांतिकारियों ने औपनिवेशिक शासन के सभी चिन्हों को मिटाने का प्रयास किया। जिन क्षेत्रों के लोगों ने विप्लव में भाग नहीं लिया उनकी सहानुभूति भी विद्रोहियों के साथ थी।
1857 क्रांति (विप्लव) और कानपुर
- 5 जून 1857 ई. को कानपुर में विद्रोह हुआ। कानपुर में क्रांति का नेतृत्व नाना साहब ने किया उन्होंने 26 जून को कानपुर पर अधिकार स्थापित कर लिया और स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया । बहादुर शाह को नाना ने भी भारत का बादशाह मान लिया था। कानपुर के अंग्रेज सेनापति कीलर को नाना साहब ने आत्म-समर्पण करने पर बाध्य कर दिया ।
- जुलाई 1857 में हैवलाक ने कानपुर पर आक्रमण कर दिया और बार दिन के घोर संघर्ष के बाद कानपुर पर अधिकार कर लिया। नवम्बर 1857 में ग्वालियर के 20,000 क्रांतिकारी सैनिकों ने तात्या टोपे के नेतृत्व में कानपुर पर आक्रमण कर दिया और वहाँ पर सेनापति विडहम को पराजित करके 28 नवम्बर को कानपुर पर पुनः प्रभुत्व स्थापित कर लिया । दुर्भाग्यश दिसम्बर 1857 को कैम्पबेल ने क्रांतिकारियों को बुरी तरह पराजित किया और कानपुर पुनः अंग्रेजों केर हाथ में आ गया । नाना साहब वहां से नेपाल चले गये ।
1857 क्रांति (विप्लव) और झांसी
- झांसी में विप्लव का प्रारम्भ 5 जून 1857 को हुआ। रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने बुन्देलखण्ड तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया । बुन्देलखण्ड में विद्रोह के दमन का कार्य झुरोज नामक सेनापति को सोपा गया था। उसने 23 मार्च 1857 को झांसी का घेरा डाल दिया । एक सप्ताह तक युद्ध चलता रहा लक्ष्मीबाई के मोर्चा सभालने बालों में सिर्फ ब्राह्मण एवं क्षत्रिय ही नहीं थे कोली, काछी और तेली भी थे ये महाराष्ट्रीय और बुन्देलखण्डी थे ये पठान तथा अन्य मुसलमान थे । पुरूषों के साथ हर मोर्चे पर महिलाएं भी थी। झांसी की सुरक्षा असंभव समझकर लक्ष्मीबाई 4 अप्रैल 1858 को अपने दत्तक पुत्र दामोदर को पीठ से बांधकर एक रक्षक दल के साथ शत्रु सेना को चीरती हुई कालपी पहुंची। तात्या टोपे, बांदा के नबाव बाणपुर तथा शाहगढ़ के राजा व अन्य क्रांतिकारी नेता भी कालपी विद्यमान थे। यहां झुरोज के साथ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें विजय अंग्रेजों को मिली । मई 1858 को रानी ग्वालियर पहुंची। सिंधिया अंग्रेजों का सथक था किन्तु उसकी सेना विद्रोहियों के साथ हो गई। जिसकी सहायता से रानी ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया और ग्वालियर की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई।
1857 क्रांति (विप्लव) और बिहार
- बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवरसिंह ने विद्रोह का नेतृत्व किया था। उस समय उनकी आयु 70 साल थी कुंवरसिंह को अंग्रेजों ने दिवालिएपन के कगार पर पहुंचा दिया था । यद्यपि उन्होंने खुद किसी विद्रोह की योजना नहीं बनाई थी। लेकिन विद्रोही सैनिकों की टुकड़ी दीनापुर से आरा पहुंचने पर कुंवरसिंह उनके साथ मिल गये । जुलाई 1857 में उन्होंने आरा पर अधिकार कर लिया मार्च 1858 में उन्होंने आजमगढ़ पर अधिकार जमाया। यह उनकी सबसे बड़ी सफलता थी। 22 अप्रेल 1858 ई को उन्होंने अपने जागीर जगदीशपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। अन्त में उनकी जागीर में ही अंग्रेजों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया और वह संघर्ष करते हुए मारे गये। उनकी मृत्यु के समय जगदीशपुर पर आजादी का झण्डा फहरा रहा था। सम्पूर्ण भारत के विप्लव में कुंवरसिंह ही एक ऐसे वीर थे जिन्होंने अंग्रेजों को अनेक बार हराया ।
1857 क्रांति (विप्लव) और राजपूताना
- राजपूताना में 28 मई 1857 को नसीराबाद छावनी में तथा 3 जून 1857 को नीमच में विप्लव हुआ लेकिन विद्रोह का मुख्य केन्द्र कोटा और आउवा थे। कोटा में विद्रोह का नेतृत्व मेहराब खां और लाला जयदयाल ने किया। कोटा में क्रांति का महत्व अपेक्षाकृत ज्यादा माना जाता है. क्योंकि लगभग छः महीनों तक कोटा पर क्रांतिकारियों का अधिकार रहा। समस्त जनता क्रांति की समर्थक बन गई थी । विद्रोहियों का लक्ष्य मुख्यतः सरकारी सम्पत्ति और सरकारी बंगले को नुकसान पहुंचाना था । मेहराब खाँ और जयदयाल के नेतृत्व में छः महीने तक फौज ने इच्छानुसार शासन चलाया। अंग्रेजों के अनेक समर्थकों को तोपों के मुंह पर बांधकर उड़ा दिया गया। अंग्रेजों को इस विद्रोह को कुचलने के लिए विशेष सेना भेजनी पडी । महाराव की स्वामी भक्त सेना करौली की सेना, गोटेपुर की फौज ने भी इस ब्रिटिश सेना का सहयोग किया। लंबे संघर्ष के बाद 30 मार्च 1858 को कोटा पर पुनः अंग्रेजों का अधिकार हो गया। मेहराव खां और लाला जयदयाल पर मुकदमा चलाने का दिखावा कर उन्हें फांसी पर लटका दिया गया ।
- जोधपुर के एरनपुरा में हुए विद्रोह में आउवा के ठाकुर कुशलीसंह चम्पावत तथा मारवाड के कुछ जागीरदार शामिल हुए। जोधपुर के शासक द्वारा किलेदार अनाडसिंह के नेतृत्व में भेजी गई सेना को क्रांतिकारियों ने पराजित कर दिया। 18 सितम्बर 1857 को क्रांतिकारियों व जोधपुर के पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन मैसन एवं ए. जी. जी लारेंस के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना में युद्ध हुआ । जिसमें ए. जी. जी. की सेना बुरी तरह परास्त हुई। आउवा के क्रांतिकारी नेताओं का सघर्क दिल्ली से था और मारवाड की जनता की सद्भावना उनके साथ थी । 10 अक्टूबर 1857 को जोधपुर लीजियन फौजी तथा कुशलीसंह के कई सहयोगी ठाकुर दिल्ली की और रवाना हुए। दिल्ली जाने का उद्देश्य यह था कि वे बहादुरशाह जफर का फरमान प्राप्त कर उसकी सैनिक सहायता से मारवाड़ तथा मेवाड को अंग्रेजी आधिपत्य से मुक्त कराना चाहते थे ।
1857 क्रांति (विप्लव) और पंजाब
- पंजाब के सिख राजाओं के विप्लव में शामिल न होने के बारे में विद्वानो में एक मत नहीं हैं वैसे ज्यादातर सिख राजाओं ने क्रांतिकारियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई थी । पंजाब के इस विद्रोह में भाग न लेने का एक मुख्य कारण पंजाबी सैनिकों की सहायता से नई सेनाओं का गठन होना था। इस भर्ती में पठानों एवं उत्तर पश्चिमी सीमा के लोगों को ज्यादा मौका दिया गया। इससे पंजाब में भंग किये गये देशी सैनिकों के सामने अंग्रेजी सेना में भर्ती का आकर्षण भी उत्पन्न हो गया था ।
- पंजाब को 1848 में ही अंग्रेजी राज्य में मिलाया गया था और यह युद्ध प्रिय लोगों का घर था । किन्तु यहां के लोग आपस में बंटे हुए थे और उनकी ईषाभरी प्रतिद्वंद्विता के कारण शासकों ने स्वयं को सुरक्षित समझा । अंग्रेजी प्रशासन का उद्देश्य था दो वर्गों का एक-दूसरे के द्वारा नियंत्रण में रखना, एक जाति को दूसरी जाति के साथ और एक मत को दूसरे मत के विपरीत संतुलित करते रहना ।
- पंजाब के पेशावर, सियालकोट, फिरोजपुर इत्यादि स्थानों पर सैनिकों ने विद्रोह किया था । लेकिन पंजाब के गवर्नर जॉन लारेंस ने प्राप्त को ब्रिटिश नियंत्रण में रखने के विद्रोह की शंका होने पर भी बर्बरतापूर्ण दण्ड देने की नीति अपनाई । कहीं-कहीं सैनिकों की पूरी रेजीमेंटों को तोप से उडवा दिया गया अं के गांब जलबा दिये गये और कुछ स्थानों पर पाद के सभी पुरुषों को कत्स करवा दिया गया॰
- उपर्युक्त विवरण से यह प्रकट होता है कि उत्तर के लोगों ने जिस उत्साह से भारत के स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया वह उत्साह दक्षिण में नहीं देखा गया। इसका कारण सम्भवतः यह था कि अब तक दक्षिण की जनता अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण व्यवहार को भूल नहीं पाई थी । अतः दक्षिण में विद्रोह को अधिक समर्थन नहीं मिल पाया। मराठा सरदार भी सामान्यतः अंग्रेजों के समर्थक बने रहे। ग्वालियर के दिनकर राव और हैदराबाद के नवाब सालारजंग ने अंग्रेजों से मित्रता निभाते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने में ब्रिटिश सरकार की सहायता की। गुरखों ने भी विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की सहायता की । कश्मीर के शासक गुलाबसिंह और राजपूताना के अधिकांश राजा भी अंग्रेज भक्त रहे । परिणाम स्वरूप क्रांति का प्रसार व्यापक रूप से नहीं हुआ ।