राजस्थान में कृषक असन्तोष के कारण
राजस्थान में किसान आन्दोलन प्रस्तावना
- राजस्थान, भारत के अन्य
प्रदेशों की भांति कृषि प्रधान प्राप्त है, जिसमें कृषकों का सीधा सम्बन्ध राज्य से या जागीरदार से रहा
है। परम्परा के अनुसार कृषकों और राज्य या जागीरदार के सम्बन्ध मधुर थे । वे अपनी
उपज का कुछ भाग अपने स्वामी को उपहार के रूप में देते थे और आवश्यकता पड़ने पर अपनी
सेवाएं संघर्ष समर्पित करने में अपना गौरव समझते थे। राज्य या जागीरदार उन्हे अपना
वात्सल्य प्रेम देकर प्रसन्न रखते थे और युद्ध के अवसर पर उनकी हर प्रकार की
सुरक्षा की अवस्था कर उनकी सहायता करते थे.
- उन्नीसवीं
शताब्दी के आरम्भ से राज्यों का ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सम्बन्ध स्थापित हो जाने
के पश्चात स्थिति में एक नयापीरवर्तन आया। इधर राजा-महाराजा तो अंग्रेजों की
छत्रछाया में मौज शौक का जीवन बिताने लगे और उधर उनके सामन्त या जागीरदार भी अपने
स्वामियों का अनुसरण करने में पीछे न रहे। जब अंग्रेजों को एक निश्चित खिराज
राज्यों से प्राप्त होने लगा तो राज्यों ने भी अपने जागीरदारों से सेवा के बदले एक
निश्चित कर लेना आरम्भ कर दिया। जागीरदार राज्यों को अपनी निश्चित कर देने के बाद
पूर्णतः निश्चित हो गये और बे अपनी जागीर में स्वच्छन्द हो गये शनैः शनैः ये
मच्छन्दता निरंकुशता में परिणित होती गई क्रमशः यही से कृषकों का शोषण आरम्भ हो
गया।
- ज्यों-ज्यों
जागीरदारों के खर्च और निरंकुशता बढ़ती गई त्यों-त्यों कृषकों पर आर्थिक मार बढ़ता
गया । लगान के अतिरिक्त कई लागतें ली जाने लगी जिनकी संख्या 100 से अधिक तक जा
पहुंची । यदि जागीरदार के यहां विवाह, जन्म-मृत्यु त्यौहार आदि का अवसर आता तो किसानों को विशेष
लागतों की अदायगी करनी पडती थी। ठिकानेदार या कामदार लोग-बागों अमानवीय ढंग से
वसूल करते थे। फसल की बुवाई हो या कटाई, शादी हो या मरण, दुष्काल हो या महामारी, ठिकाना बिना विवेक के कर वसूली करता था। इसके अतिरिक्त
बेगार प्रथा से किसान इतना ग्रसित था कि उसके न करने पर उसे कठोर यातनाएं भोगनी
पड़ती थी। न्याय प्राप्त करने की किसान कल्पना भी नही कर सकता था ।
राजस्थान में
कृषक असन्तोष के कारण
- प्राचीन काल से
मध्य काल तक शासक तथा सामन्तों या जागीरदार के बीच सम्बन्ध मधुर थे। इसी प्रकार
समिन्त, जागीरदार तथा
उनकी रैरयत के मध्य भी सम्बन्धों में सदभावना तथा सहयोग देखने को मिलता हैं रैयत
अपनी आर्थिक स्थिति तथा इच्छानुसार उदार होता था। खालसा तथा जागीर दोनों ही
क्षेत्रों के किसान अपने स्वामी को सम्मान देते थे। इधर शासक तथा सामन्त भी अपने
किसानों को रखने के लिए प्रयास में रहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि राज्य तथा जागीरों की समृद्धि केवल
किसानों पर निर्भर थी किन्तु उन्नीसवी शताब्दी के मध्य से इस व्यवस्था में बदलाव
आने लगा । और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कृषक असन्तोष का स्वरूप अत्यन्त
विस्तृत हो गया ।
कृषक असन्तोष के मुख्य कारण निम्नलिखित थे :-
1 जागीरदारों एवं
सामन्तों का पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति की ओर झुकाव बढ़ना
- उन्नीसवी शताब्दी
के आरम्भ में देशी राज्यों तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच सन्धियां स्थापित हो
गयी थी, जिससे इन राज्यों
को अपनी सुरक्षा व्यवस्था की चिन्ता से मुक्ति मिल गयी थी । इन सन्धियों को
ब्रिटिश सरकार ने यथावत मान लिया था। इससे शासन वर्ग, जागीरदार वर्ग, अपनी रेययत के
प्रति उदासीन हो गया। ऐसी स्थिति में राजा तथा सामन्त दोनों ही वर्ग विलासप्रिय हो
गये । अंग्रेज अधिकारियों से सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद उन पर पाश्चात्य
संस्कृति का प्रभाव बढ़ने लगा, जिससे उनके रहन-सहन में भारी परिवर्तन आ गया । मेयो कॉलेज
(अजमेर) में पढ़ने वाली शासकीय पीढ़ियाँ पश्चिमी शैली की वेशभूषा खान-पान, दावतें तथा
अंग्रेजी शराब के प्रति अत्यधिक आकृष्ट हो गई यह नई जीवन शैली ठिकानों में
उत्पादित वस्तुओं से पूरी हो सकती थी जिन्हें केवल धातु मुद्रा से ही प्राप्त किया
जा सकता था। इसी तरह इन जागीरदारों के पुत्रों का मन अब जागीरों नहीं लगता था अतः
राज्यों की राजधानियों में आधुनिक सुखसुविधाओं से सम्पन्न हवेलियो का निर्माण
आरम्भ हुआ। जिसके लिए नकद धन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। अतः जागीरदारों
किसानों पर नई लागतें थोप दी। ज्यों-ज्यों इन जागीरदारों की आवश्यकताए बढ़ती गई, किसानों का शोषण
भी बढ़ता गया। इससे कृषकों में असंतोष फैलना स्वाभाविक ही था ।
2 कृषि पर आधारित
लोगों की संख्या में बढ़ोतरी
- कृषक असंतोष का
दूसरा मुख्य कारण जनसंख्या के एक बड़े भाग का कृषि पर निर्भर होना था । अठारहवीं
सदी में कृषि भूमि की कमी नहीं थी और सामन्तों को यह भय बना रहता था कि यदि किसान
जागीर छोड़कर अन्यत्र चले गये अथवा कृषि कार्य के स्थान पर अन्य व्यवसाय अपनाने
लगे उन्हे आर्थिक हानि सकती थी। अतः सामान्यतः कृषकों के साथ उन्होंने उदार
व्यवहार किया था, किन्तु अब
परिस्थितियां बदल चुकी थी। अंगेजो के आगमन से राजस्थान के कुटीर एवं लघु उद्योगों
को क्षति पहुंची थी। अब अधिक लोग कृषिव्यवसाय की ओर आकर्षित होने लगे । 1891 ई. में राजस्थान
में 54 प्रतिशत
जनसंख्या ही कृषि पर आधारित थी जबकि 1931 ई. में कृषि पर आधारित लोगों की संख्या बढ़कर 73 प्रतिशत हो गई।
इस काल में जनसंख्या में भी बड़ा परिवर्तन नहीं आया । इस समय में कृषि भूमि की
मांग बढ़ती जा रही थी । श्रमिक अपेक्षाकृत कम मजदूरी पर काम करने को तैयार थे। अतः
समानतों को अब किसानों के असंतोष का भय नहीं रहा । ऐसी स्थिति में सामन्त अपनी
इच्छानुसार लागतों की संख्या वृद्धि करते रहे ।
3 जागीरदारों का
अमानवीय व्यवहार
- किसानों के
असंतोष का सर्वाधिक उल्लेखनीय कारण यह था कि जागीरदार अपने किसानों के साथ अमानहीय
व्यवहार करते थे। छोटी-छोटी बात पर किसानों को बेरहमी से पीटा जाता था । जागीरदार
अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते थे और किसानों पर झूठा मुकदमा चलाते थे, जिससे भारी
जुर्माना वसूला जा सके। किसानों को अपने परिहार सहित बेगार करनी पडती थी क्योंकि
बेगार से इन्कार करने पर उनको और अधिक कठिनाइयों का सामना कला पड़ सकता था। इनके
अतिरिक्त किसानों की बहू-बेटियों की इज्जत भी सदैव खतरे में खती थी। लगान न चुकाने
पर किसानों को अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर दिया जाता था। कीमती सामान पर कच्छा
व मवेशियों को ले जाना, फसल काट लेना तो
सामान्य सी घटना होती थी। जागीर में न्याय व कानून कुछ भी नहीं थे। जागीरदार ही
कानून था और जागीरदार के अन्याय करने पर कृषक कहीं भी शिकायत नहीं कर सकता था ।
ऐसी स्थिति में किसानों के लिए आन्दोलन के मार्ग पर जाने के अतिरिक्त अन्य कोई
विकल्प नहीं था । अतः किसानों ने संगठित होकर जागीरदारों के अन्याय के विरुद्ध
आवाज उठाना आरम्भ कर दिया
4 कृषि उत्पादित
वस्तुओं की कीमतों में अस्थिरता
- राजस्थान में
कृषक आन्दोलनों के लिए एक अन्य कारण उन समसामयिक परिस्थितियों का है जिनमें कृषि
उत्पादन की वस्तुओं का मूल गिरता एवं बढ़ता गया कृषक दोनों ही स्थितियों मे घाटे
में रहते थे । गिरते मूल्यों में उनकी बचत का मूल्य बहुत कम रहता था और बढ़ते
मूल्यों का उन्हे लाभ नहीं मिलता था, क्योंकि जागीरदार लगान जिन्स में लेता था। प्रथम विश्व
युद्ध की समाप्ति के तुरन्त बाद तथा विश्वद्यापी आर्थिक मन्दी की अवधि में कृषि
उत्पादनों का मूल्य बहुत कम रहा । इसके अतिरिक्त 1916 के पश्चात अफीम की खेती कम होती गई और कृषकों
को धातु मुद्रा की उपलब्धि भी उसी मात्रा में कम होती गई । 1913 से पहले मालवा
अफीम की खेती 5,62,000 एकड भूमि में
होती थी जो 1930 तक केवल 36,476 एकड़ भूमि रह
गयी और 1937 तक 20 हजार एकड भूमि
ही रह गई । इस नकद जिन्स की खेती कम होने से कृषकों की धातु मुद्रा की अवश्यकता
पूरी नहीं हो सकी। बेंगू की कृषकों की मुख्य शिकायत अफीम की खेती का कम होना ही था
।
- उपर्युक्त कारणों
से यह स्पष्ट था कि किसानों की दयनीय स्थिति ही उनको आन्दोलन करने के लिए मजबूर कर
रही थी। कृषकों का असंतोष मुख्यतः जागीरदार के विरुद्ध होता था, क्योंकि वही सब
प्रकार के अधिकार अपने पास केन्द्रित किये हुए था ।